Friday, February 21, 2014

ज़मीन / आसमान....... ?
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उसने रोज़ अपना रुख़ आसमान का किया 
छीनी गयी किसी रोज़ उसकी ज़मीन हँसते हुए 

उसने जिया हर साँस को हज़ार साँसों की तरह 
निकले हर राह घायल पाँव नये सपने लिए हुए 

उसने आँख खोली साज़ खोले नयी धुन तड़प उठी 
खुल पड़ते थे उसके पांवों के घुँघरू बँधे हुये

उसने अपनी ज़ुबाँ में लिखे कई नए शब्दकोष
लौटी पीछे नज़र तो हँसे कई साल बिखरे हुए

उसने किया ऐलान तो घंटे बजे , उठ गयी नयी दुआ
गुज़र जाए वह जिस ज़मीन से मिले हाथ खिले हुए
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कंचन

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