Friday, February 21, 2014

जानते कितना हैं हम ------------------
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तुम्हारे धूम थ्री के संगीत के बीच में भी
मैं अपनी माँ का गाया *सासुल पनिया * गाती हूँ
तो तुम्हें गुस्सा क्यों आता है ?

तुम्हारे तारकोवस्की के सिनेमा के बीच में भी
मैं स्टोव की लौ में जली अपनी पड़ोसन को ही देखती हूँ
तो तुम्हें हैरानी क्यों होती है ? 

तुम्हारे संस्कृत उवाच के संगीत के बीच में भी
मैं अपनी दादी की कहावतें ही बुदबुदाती हूँ
तो तुम्हें खीज क्यों आती है ?

तुम्हारे कैनवास की भव्य कलात्मकता के बीच में भी
मैं नयी उंगलियो से खींची गयी टेढ़ी लकीरों को ही देखती हूँ
तो तुम्हें बहुत जोर से हँसी क्यों आती है ?

तुम्हारे झंडे के नीचे उठे चीखों के शोर के बीच में भी
मैं अपने हाथों से एक नया स्मारक खड़ा करके आती हूँ
तो तुम्हें पुरानी तारीख़ क्यों याद आती है ?
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कंचन

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