Sunday, June 15, 2014

एक अपील .... / दो टूक बात ....!
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दिवस कभी ख़त्म नहीं होता,
अलबत्ता विभावरी बीत जाती है …

जो प्रेम करते हैं उनके लिए हर दिन ,
हर पल किसी वैलेंटाइन से कम नहीं होता

जो पतिव्रता होती हैं उनकी हर साँस 
करवा-चौथी व्रत में लगी होती है

जो पीड़ा और करुणा में आकंठ डूबे हैं
वे देह की नसों का ख़ून आँखों में उतारते हैं
दिवस कोई नया हो चाहें या विभावरी बीत चुकी हो !

स्त्रियों और पत्नियों के ख़िलाफ़ जो
मज़ाक ,चुटकुले ,जुमले एन्जॉय किये जाते हैं …
पत्नी के बिना जिस आजादी और
खिचड़ी ,आमलेट को गौरवान्वित किया जाता है.....

उसे तुरंत और हमेशा-हमेशा के लिए बंद कीजिये !

कोई बौद्धिक और संवेदनशील जब पत्नी को
हत्यारी कहने का चुटकुला सुनाता है
कोई विभाबरी बीत जाने पर जब
अपने बच्चों के पीछे भागने का जुमला फेंकता है
कोई पत्नी के न होने पर जब खिचड़ी और आमलेट
पर अपनी आज़ादी को गौरवान्वित करता है
कोई चूड़ियों को कमजोरी बताता है
तो साफ़ दिखता है कि नेपथ्य का संगीत
कहाँ से बज रहा है…

दोस्तों , किसी कविता की लय में तैरते हुए
वाहवाही के किसी टुकड़े पर थिरक जाना
या किसी पर धारदार खंजर फेंकना लक्ष्य नहीं है

यह सिर्फ़ उस भाषा को रोकने में शूरवीरों के लिए एक अपील है
जो खुले आम अपने बौद्धिक और संवेदनशील हौसले को
जाने /अनजाने में अस्वीकृत हिमाक़त में बदल देते हैं

दो टूक बात -
स्त्रियों के ख़िलाफ़ ,पत्नियों के ख़िलाफ़
शालीन मज़ाक की आड़ में
किये जाने वाले अपमान को बंद कीजिये
तुरंत …
अभी.....

क्या जरूरत है कि आधी घरवाली की तर्ज़ पर
आधा घरवाला के चुटकुले सुनकर सवाल किये जाए ?

हिम्मत और हौसले इतने !
कि स्त्रियों के सामने ही
पत्नी और स्त्री के ख़िलाफ़
चुटकुले और जुमले सुनाकर ठहाका लगता है
और दिवस विभावरी बन जाता है
स्त्री बच्चों के पीछे भागने लगती है
कोई पत्नी हत्यारी कहे जाने पर
पति को खाना देना बंद कर देती है
कोई पति फिर सिर्फ आमलेट बनाकर
आज़ादी बयान करता है

कोई कविता फिर स्त्री इन्क़लाब ज़िंदाबाद के नारे लगाती है
कोई स्त्री फिर कोई अपील ,कोई पीड़ा बयान करती है
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कंचन

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